संकट-मोचन हनुमान फ़ाउंडेशन


संकट-मोचन हनुमान फ़ाउंडेशन
आज देश दुनियाँ जिस तरह से विकसित हो रही है और आगे बढ़ रही है, वैसे-वैसे उसके सामने दिनोंदिन अधिक संकट उपस्थित होते जा रहे हैं अर्थात् पहले की तुलना में आज व्यक्ति अधिक संकटग्रस्त हो रहा है या अपने को अधिक संकटग्रस्त होने का अनुभव कर रहा है, इसलिए पहले की तुलना में आज समाज में संकट-मोचक की आवश्यकता अधिक अनुभव की जा रही है।

इधर राजनैतिक परिदृश्य में जो हमारे राजनेता हैं, उनमें से अधिकांश अपने को संकट-मोचक के रूप में उपस्थित करने में भी लग गये हैं, जबकि कोई सामान्य मनुष्य भला संकट-मोचक कैसे हो सकता है, ऐसी स्थिति उनकी न कभी थी और न है।

हमारी परंपरा में संकटमोचक श्री हनुमान जी नायक के रूप में रहे हैं, नेता के रूप में नहीं, आज समाज में से नायक लगभग ग़ायब हैं, हमें इस संकट मोचन फ़ाउंडेशन के माध्यम से नायकों और नायकत्व की पुनर्स्थापना  करनी है या हम पुन:स्थापना करना चाहते हैं।

श्री हनुमान जी महाराज हमारी परम्परा में परम संरक्षक और परम सेवक के रूप में भी स्थापित हैं। हमारी परंपरा में जो श्री हनुमान जी का उल्लेख आता है, उसमें श्री राम-हनुमान संवाद में यह वर्णन मिलता है— भगवान् श्री राम हनुमान जी से कहते हैं कि तुमने हमारी बहुत सेवा क़ी, इसलिए चलो, तुम्हें मोक्ष दे देते हैं, इस पर वे कहते हैं कि न हमें मोक्ष चाहिए और  न मृत्यु  ही चाहिए। मैं तो आपसे यह वरदान चाहता हूँ कि मैं निरंतर जीवन्त रह कर तुम्हारे या आपके भक्तों की या उन पर आये संकटों से उनकी रक्षा कर सकूँ। इसीलिए यह मान्यता है कि जो श्री राम का नाम जहाँ कहीं भी कोई ले रहा है, तो श्री हनुमान जी उसकी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में रक्षा अवश्य करते हैं और उस पर कोई संकट नहीं आने देते, इसीलिए श्री हनुमान जी सर्व-काल जीवंत संकट-हर हैं।

श्री हनुमान जी के बारे में एक परंपरा और मिलती है कि महिलाएँ श्री हनुमान जी का स्पर्श नहीं करती हैं, न उनकी परिक्रमा लगाती हैं या न परिक्रमा करती हैं। असल में हमारी परंपरा में हमारे पूर्वज श्री हनुमान जी के बारे में यह कहते आए हैं कि श्री हनुमान जी ने बाल्य-काल से ही जगत की सारी महिलाओं और स्त्रियों को माँ और बहन के रूप में स्वीकार लिया था या स्वीकृत किया था और जब श्री हनुमान जी नारी मात्र को बहन या माँ के रूप में देखते हैं या दखने लगते हैं, तो-फिर भला वे किसी से या किसी स्त्री से विवाह कैसे कर लेते या उसे अर्धांगिनी कैसे बना लेते, इसलिए उन्होंने आजीवन बाल ब्रह्मचारी के रूप में जीने को प्राथमिकता दी इसके पीछे यह भाव भी रहा कि यदि वे ऐसा न करते और विवाह कर परिवार बसा लेते हैं, तो-फिर कुछ न कुछ अंशों में परिवार की मोह माया से भी वे अनुरक्त हो जाते और तब फिर वे जगत उद्धारक जगत संकट तारक भला कैसे हो पात, उन्हें तो जगत और जगती के संकटों को दूर करना था न, इसीलिए वे सही मायने में सही उद्देश्यों के साथ जगत संकट-तारक होकर ही सर्वथा रहे।

श्री हनुमान जी हमारी परम्परा में केवल आदेशहर ही नहीं रहे हैं, बल्कि वे व्यवहारकुशल व्यवहार-वेत्ता भी रहे हैं। आप देखिए कि श्री हनुमान जी माता सीता जी की अशोक बाटिका में पहुँच जाते हैं, पर वे सीधे सीता माता के सामने प्रस्तुत नहीं होते हैं वे पहले वृक्ष पर बैठकर श्री राम का गुणगान करते हैं, यह गुणगान सीता माता के भीतर बसा जो श्री-राम-भाव है, उस श्री-राम-भाव से उन्हें पहले जोड़ता है और-फिर जब ऊपर से वे मुद्रिका छोड़ते हैं, तो माता सीता को वह अंगार-सी लगती है, पर जैसे ही वे उसे ठीक से देखती है, तो उन्हें किसी श्री राम जी के भक्त की उपस्थिति की अनुभूति होती है और जैसे ही वह अनुभूति होती है, तो वैसे ही सीधे श्री राम-भक्त श्री हनुमान जी सीता माता जी के सामने प्रकट हो जाते हैं, इन चरणों के क्रम को देखिए और तब इसके बाद ही उनके संवाद को, जिसमें वे यह विश्वास दिलाते हैं कि अब आपको कष्ट होने वाला नहीं, क्योंकि हम तो कष्ट हरने के साधन बन कर आ गए हैं और आपको यहाँ से निकाल कर ले ही जाएँगे। इस पूरे कथन का व्यावहारिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष देखिए, कितना सरल और सहज है, इसलिए हनुमान जी सरल भी हैं, सहज भी और व्यवहार-कुशल भी तथा अतुल बल-शाली भी।

श्री लक्ष्मण जी को शक्ति लगती है और जब वे वेसुध हो जाते हैं, तब श्री सुषेण वैद्यराज पर्वत से संजीवनी बूटी लाने के लिए कहते हैं और अतुल बलशाली श्री हनुमान जी संजीवनी बूटी के स्थान पर पूरा पर्वत ही उठाकर ले आते हैं, अब ज़रा विचार करिए कि ऐसा उन्होंने क्यों किया था, क्योंकि यह काम तो थोड़ी-सी संजीवनी बूटी-भर लाने से चल सकता था?.... इसका उत्तर परंपरा से ही मिलता है—श्री हनुमान जी स्वयं तो वैद्य थे नहीं और पर्वत पर उपलब्ध अनंत वनस्पतियों में से एक ही काम की वनस्पति कौन-सी है, यह भी वे जानते नहीं थे तथा यह भी उन्हें पता नहीं था कि औषधि के रूप में भी कितनी मात्रा में वनस्पति की ज़रूरत है, तो यदि वे फिर-फिर बार-बार बनस्पति तोड़कर लाते, तो इसमें एक तो समय बहुत लगता और तब फिर जाकर कहीं सही वनस्पति वे लेकर आ पाते, इस पूरी प्रक्रिया में वनस्पतिकाय में रहने वाले अनंत जीवों की हिंसा होती और इससे वे बचना चाहते थे तथा इसके साथ  यह भी वे अपने शरीर में रहने वाले बल का प्रयोग अनंत जीवों की हिंसा के लिए नहीं करना चाहते थे, क्योंकि परम-अहिंसक थे न वे स्वभाव से। उनके इस परम अहिंसक भाव को नमन।

जैन परंपरा में श्री हनुमान जी का अणुमान् और महिमामान् के रूप में भी उल्लेख मिलता है अर्थात् ये दोनों नाम वहाँ प्रचलित हैं। अब थोड़ा विचार करिए कि ये नाम वहाँ क्यों प्रचलित है?..... ये इसलिए हैं क्योंकि श्री हनुमान जी के भीतर ऐसी अद्भुत अदमय शकति और सामर्थ्य थी कि वे अपने संपूर्ण शरीर को अणु जितना छोटा और पर्वतों से भी बड़ा बना सकते थे, इसी शक्ति का नाम अणिमा और महिमा है, उनकी यह शक्ति और सामर्थ्य ही उन्हें अणुमान् और महिमामान् के रूप में उन्हें प्रतिष्ठापित करती है।

इस फ़ाउंडेशन का लक्ष्य है कि श्री हनुमान जी के पूरे विश्व में प्रचलित या उपलब्ध विविध रूपों से संबंधित जो भी जहाँ भी तथा जिस भाषा में भी सामग्री है, उसे संकलित व विश्लेषित करते हुए तथा निरंतर संकलित व विश्लेषित करने वाले एक ऐसे केंद्र की स्थापना करना जो वर्तमान समय के लिए आवश्यक ऐसे नायक श्री हनुमान को जन-जन में गढ़ने से संबंधित समस्त कार्यों को करने के लिए समर्पित होगा, हमें इस भाव को मूर्त करने के लिए जो-जो आवश्यक होगा, वह सब हम इसमें करना चाहते हैं

संकल्पना : प्रोफेसर वृषभ प्रसाद जैन


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